"मैं" रचता सृष्टि—पर रचयिता नहीं,
हर भाव में डूबा—पर स्पर्शता नहीं,
सपनों की नदियों में बहती मेरी तस्वीर, पर जागने पर पाता—था कोई भी नहीं। जो मैं कहता "मैं हूँ", वो माया की चाल, एक अनकही लीला—एक अनदेखा जाल।
देह को मैं समझ बैठा जीवन का सार,
पर श्वास के पीछे था मौन का प्रकार।
भावों की चिताएँ जलतीं रात्रि-दिन,
पर कोई था जो न जलता—न होता लीन। मुझे जो मिला, वो खोया हुआ था, क्योंकि पाने वाला भी माया में खोया हुआ था।
मैं ब्रह्मा की कल्पना, विष्णु की लीला,
महेश का तांडव—मेरा ही झीना क़ीला। तीन गुणों का नृत्य, त्रिकाल की चाल, पर "मैं" कभी भी न था इनमें बेमिसाल। जो पूजा उसे जाना नहीं,
क्योंकि जो जानता है—वो पूजा नहीं करता कहीं।
मैं राम बना, रावण भी मेरा ही रूप,
मैं सीता की पीड़ा, मैं अग्निपरीक्षा का धूप। मैं मीरा की प्यास, मैं विष का प्याला, पर पीने वाला "मैं" भी—मिथ्या का ही जाला। जहाँ मैं देखता हूँ, वहीं भ्रम है बसा,
क्योंकि दृष्टा भी माया—और दृश्य भी धुँआ-सा।
"मैं" प्रेम कहूँ या विरह का गीत,
ये सब अनुभूतियाँ भी माया की रीत।
जिसको थामा, वो फिसला हाथों से,
क्योंकि थामने वाला भी बंधा अपने ही भ्रांति-नाते से। माया ने रचा वो प्रेम जिसमें मैं डूबा,
पर प्रेम वही जो "मैं" को भी भुला दे—पूरी तरह ऊबा।
जिन्हें अपना कहा, वो परछाइयाँ थीं,
हर "तू" मेरे ही "मैं" की परियाँ थीं।
आसक्ति के धागे जो बाँधे मैंने कल,
वो आज भी मेरे आत्मबोध में बनते हैं छल। जिससे मैंने पूछा—"तू कौन?"
वही मुझसे कह बैठा—"मैं ही तेरा मौन।"
मैं ज्ञानी भी, मैं अज्ञानी भी,
मैं साधक भी, मैं कहानी भी।
शब्दों में जो अर्थ था, वो खो गया,
क्योंकि शब्द भी माया—और अर्थ भी सो गया। जिसे जानना चाहा, वो कभी छिपा न था, पर जानने वाला ही भ्रांति में लिपटा हुआ था।
अंत में जब "मैं" ही जलकर राख हुआ,
तब उस राख से प्रकाश का स्पर्श हुआ। "मैं" नहीं बचा, पर कुछ रह गया, शून्य नहीं, पर पूर्ण—जैसे कोई स्वयं को ही सह गया।
वहीं माया मुस्काई, बोली—"अब तू जान गया", "जो ‘मैं’ नहीं, वही तू था—और वही सदा से था।"
[Verse 1]
I build the world, yet not its source,
Feel every touch, yet hold no force.
My image flows in rivers of dreams,
Awake, I find, it only seems.
[Chorus]
'I am,' a trick, a Maya's game,
An untold play, an unseen frame.
I took the body as life's core,
But silence breathed behind the door.
[Verse 2]
Pyres of feelings burn night and day,
Yet something stays, won't fade away.
What I received was lost before,
For the receiver, lost evermore.
[Chorus]
'I am,' a trick, a Maya's game,
An untold play, an unseen frame.
I took the body as life's core,
But silence breathed behind the door.
[Bridge]
Brahma's thought, Vishnu's play,
Shiva's dance, my fragile sway.
Three threads entwined, time's endless call,
But 'I' was never part of it all.
[Chorus]
'I am,' a trick, a Maya's game,
An untold play, an unseen frame.
I took the body as life's core,
But silence breathed behind the door.
[Outro]
When 'I' burned down to ash at last,
From embers, light, a touch surpassed.
'I' ceased to be, yet something stayed,
Not void, but whole, self gently swayed.
Maya smiled, 'Now you perceive,
What 'I' is not, you always weave.'
[End]